भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बंशी की धुन / बाबा बैद्यनाथ झा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कहाँ छिपे हैं आप कन्हैया, हे मोहन चितचोर।
बंशी की धुन सुनकर राधा, होती भाव विभोर॥

यमुना तट पर बैठ सुबह से, लगा रही है आस,
हुई दोपहर तो व्याकुल हो, दिखती खूब उदास।
शाम ढलेगी तो घर वापस, जाना है अनिवार्य,
विरह अग्नि को शान्त कराने, आ जाएँ हे आर्य।

पलक बिछाए देख रही है, चिह्नित पथ की ओर।
बंशी की धुन सुनकर राधा, होती भाव विभोर॥

मधुवन भी लगता है सूना, आ जाएँ गोपाल,
भटक रही हैं सारी गायें, बहुत बुरा है हाल।
यह कदंब का पेड़ अधूरा, प्रश्न पूछता आज,
यमुना की धाराएँ चुप हैं, लगी हुई है लाज।

इतना निर्मम बनें नहीं अब, हे प्रभु नन्दकिशोर।
बंशी की धुन सुनकर राधा, होती भाव विभोर॥

इतने में आकर मनमोहन, छेड़ चुके जब तान,
दौड़ पडी़ तब राधा रानी, आयी तन में जान।
लगे नाचने दोनों मिलकर, शुरू हुई तब रास,
जीव ब्रह्म का मिलन हुआ ज्यों, रच डाला इतिहास।

दृश्य देखकर यह नैसर्गिक, नाच रहा मनमोर।
बंशी की धुन सुनकर राधा, होती भाव विभोर॥