बचपन - 1 / हरबिन्दर सिंह गिल
जिंदगी कुछ ठहरी-ठहरी लग रही थी
सोचा
क्यों न जीवन के उन दिनों में
जहाँ सिर्फ निरंतर प्रवाह था
अपने आज को
जो मैला हुआ पड़ा है
अतीत के स्वच्छ जल से धोकर
साफ करने की कोशिश करूँ।
”मैनें बचपन को निरंतर प्रवाह कहा है
उसका अपना स्वयं का
कुछ भी बहुत कम होता है।“
वह माँ-बाप के लिये प्यार
सहपाठियों के लिये साथी
गुरुओं के लिये भविष्य
मानवता के लिये प्रेरणा
और प्रकृति के लिये सत्य है।
इसलिये ही तो बचपन हमेशा बहता रहता है
रूकता नहीं हैं, अपने पथ पर
जब तक कि वह मानव नहीं बन जाता।
उसके बाद
न तो वह माँ बाप का प्यार ही रह जाता है
न ही सहपठियों का साथी
न ही गुरुओं का भविष्य
न ही मानवता के लिये प्रेरणा
न ही प्रकृति का सत्य
यह सब विपरीत हो जाता है
क्योंकि मानव का सब कुछ स्वयं के लिये होता है
न कि बच्चों की तरह अपना कुछ भी नहीं।