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बच्चे-1 / देवयानी
Kavita Kosh से
वे रंगों को बिखेर देते हैं कागज पर
और तलाशते रहते हैं उनमे
औघड रूपाकार
सब चीजों के लिए
कोई नाम है उनके पास
हर आकार के पीछे
कोई कहानी
बनती बुनती रहती है उनके मन में
कभी पूछ कर तो देखो
यह क्या बनाया है तुमने
झरने की तरह बह निकलती हैं बातें
नही, प्रपात की तरह नही
झरने की तरह
मीठी
मन्थर
कहीं थोडा ठहर जाती
और फिर
जहाँ राह देखती
उसी दिशा मे बह निकलती
भाषा जहाँ कम पड़ने लगती है
उचक कर थाम लेते हैं कोई सिरा
मानो
गिलहरी फुदक कर चढ़ गई हो
बेरी के झाड पर
उनसे जब बात करो
तो बोलो इस तरह
जैसे बेरी का झाड
बढा देता है अपनी शाख को
गिलहरी की तरफ
वे
फुदक कर थाम लेंगे
आपके सवालों का सिरा
पर जवाब की भाषा
उनकी अपनी होगी