बच्चों की सोहबत में / हेमन्त देवलेकर
घर की हर चीज़ व्यवस्थित रखी हुई है
पर चीज़ें ख़फ़ा हैं बहुत
इस करीनेपन से।
वे इंतज़ार में हैं कि बच्चे आएँ
और सारी सजावट कतरा-कतरा बिखेर दें
चीज़ें महज़ दिखावटीपन जीना नहीं चाहतीं।
बच्चे जो चीज़ों को मुक्त करते हैं
बंधी-बंधाई जगहों, चरित्रों और उपयोगिताओं से।
वे उनके दायरों को बनाते हैं- अंतरिक्ष
कंघी को गाडी बनाकर सरपट दौड़ाते हुए
उनसे नई-नई भूमिकाएं करवाते हैं
वे अपना विज्ञान स्वयं खोजने में तल्लीन
इसलिए उन्हें खिलौनों से खेलना कम
उन्हें खोलना ज़्यादा खेल भरा लगता है।
वे मचलते हैं उन चीज़ों के लिए
जिन्हें उनके डर से
छुपा दिया गया है
(उन चीज़ों के मुंह तो देखो
जैसे काले-पानी की सजा दी हो)
चीज़ेें उनके हाथों में जाना चाहती हैं
ताकि कोई नया नाम, नया काम और
जीने की कोई नई वजह मिल सके।
चीज़ें बच्चों की सोहबत में
भूल जाना चाहती हैं
अपनी तमाम निष्प्राणता।