भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बड़ा चिड़ियाघर / बाजार में स्त्री / वीरेंद्र गोयल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जूते में गड़ी कील
हमेशा चुभती रही
चंद्रग्रहण की तरह
लगाता रहा दाग
मेरा शरीर
मेरी बुद्धिमत्ता पर
कुछ और न मिलने पर
यही तो बचता है
तरकस का आखिरी तीर
चलाने की तरह
खुद को हारते हुए देखा
नंगा हो जाने की तरह

कब तक
कितनी-कितनी बार
मान्यवरों को
कुलीनों को
अष्टावक्र की तरह
चमड़े की परख करने वाला बताऊँ
संसार तो गुलशन है
फिर भी
खुद को कोई नहीं देखता
दूसरों का रंग उड़ाते हैं
हर बार हारते हुए
वही वाक्य दोहराते हैं
कीमत है चमड़े की
कपड़े की
इस मिट्टी के पुतले का
अभिमान क्या
ये तो चंद दिनों का सोना है
जो हर हाल में खोना है
अगर कुछ दिमाग चलाते
शायद शरीर से परे पहुँच जाते
पर इनका तो यही तानाबाना है

गुबरैले क्या बना सकते हैं
गोबर की गोलियों के सिवाय
मधुमक्खियाँ क्या करेंगी
शहद और मोम बनाने के अलावा
चींटियाँ क्या करेंगी
संग्रहण के अलावा
दीमकें
घर ही तो बनायेंगी-खोखले

हर पल
धरा करवट बदलती रहती है
नदियाँ बहती रहती हैं
सागर हिलोरें लेता रहता है
सूर्य उदय होता है
अस्त होता है
इसका आनंद नहीं ले पा रहे
परिवर्तनशीलता नहीं खोज पा रहे
कोई जिज्ञासा नहीं
कोई प्रश्न नहीं
बस यहीं पर अटके हैं
बुरी तरह से भटके हैं
मेले ने लुभा लिया है

रास्ता दिखाने पर
बर्दाश्त कहाँ होता है
कि उन्हें कोई रास्ता दिखाये
मुँह बनाकर
चल दे चाहे उस रास्ते पर
मजाक फिर उड़ाते हैं

अगर इतना ही है दम
तो मुझ पर नहीं
मुझे बनाने वाले पर हँसों
जिसकी ये रचना उत्कृष्ट नहीं
उसकी उच्चता
शोहरत के मापदंडों पर खरी नहीं

मेरी नजरों से
फिर खुद को देखो
कि तुम मेरे जैसे क्यों नहीं
तब विचार पलट जाएगा
इसका रहस्य समझ आएगा
कि विविधता क्यों है
क्यों गोरे और काले हैं
क्यों सीधे और घुँघराले हैं
क्यों आँखें भूरी, नीली, काली हैं
ये विचार है
चिड़ियाघर बनाने का
मन बहलाने का
बेचैनी रचनाकार की
हर पल
कुछ नया करने को उकसाती है
इसलिए धरा
तरह-तरह के जीवों का
घर बनती जाती है
पूछो उससे
क्यों हर रोज
वो कुछ नया बनाता है और
पुराना मिटाता है?