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बतियाती मछलियां / माया मृग

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मानसरोवर के ठहरे जल से दूर
जाने कहाँ को
जाने कहाँ के लिए
उड़ान भर रहे हैं, हंस।
आफलक फैले हैं
उनके गोरे पंख।
जिनसे लगातार झर रहे हैं
सफेद-सफेद रोंयें।
डब्-डब् रो रहे हैं हंस,
मानसरोवर से बिछड़ते।
आँसुओं की हल्की-हल्की चोट से
पड़ जाते हैं
छोटे-छोटे गड्ढ़े,
पौष की ठण्डाई रातों में
जमकर बर्फ हो गए
मानसरोवर के जल में।

बतियाती मछलियां
बाहर जकड़ लिए हैं पौष ने
हवा, पानी और आकाश।
आओ, गहरे में चलें
शायद तल में हो कुछ
गरमाई,
बस इतनी कि
जी सकने जितनी
कि जम ना जाये कहीं,
धमनियों में रक्त,
कहीं मानसरोवर भर न
जाये,
कमलों की जगह,
हमारी दुर्गंधाती लाशों से !