भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बदरंग / कविता वाचक्नवी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बदरंग


कितने बूटे
बेल, बूटियाँ
हरे, गुलाबी
काढ़ो इस पर,
सखे!
दूधिया चादर है यह
धूल, धूप, धक्कड़ खाई-सी
और नियति
बदरंग हुई है।