भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बदरंग चेहरे / शिव कुशवाहा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सांझ के गहरे होने के साथ
गहरा जाती है बदरंग चेहरे की निराशा
एक पग जब बढ़ना मुश्किल हो जाता है
तब गहरे दिन की बढ़ती कालिमा
कह देती है चुपचाप आगे बढ़ने के लिए.

अस्त होते हुए सूरज की शिथिल किरणें
दूर तक ले जाती है हमारा अस्तित्व
लंबी छाया में हम देख लेते हैं मुरझाता अक्स
कभी कभी समझ आने की तह तक
हम समझ ही नहीं पाते
कि दिन ढलने के साथ ही ढल जाती है
जिंदगी की रंगीन दुनियाँ
बदरंग पृष्ठों की भूमिका कि तरह
साफ साफ नहीं दिखते शब्द
कविता कि संवेदना भी हो जाती है अस्पष्ट।

गहरे धूमिल-धूंधलके में दिखाई देंगे
कुछ चेहरे जिनकी पहचान
मटमैली-सी उभर आती है जेहन में
राह की सकरी मेढ़ पर
धीरे-धीरे बढ़ रही लम्बी होती हुई छाया
और उसके इर्द-गिर्द टूट रहा उम्मीदों का बाँध।

गोल घूमती हुई पृथ्वी अपनी धुरी पर
छोड़ देती है बदरंग चेहरे
जो देखते रहते हैं लगातार दुनियाँ की तेज़ रफ्तार
बदरंग चेहरों की दुनियाँ बढ़ रही है
साथ ही साथ बढ़ रही धीरे-धीरे दिनमान की कालिमा...