बदल गई हूँ मैं / नंदा पाण्डेय
हाँ!
बदल गई हूँ मैं
क्या हो गया अगर मैं बदल गई
कैलेंडर की तारीखें बदल जाती हैं
दिन,महीने ऋतुएँ बदल जाते हैं
ब्रह्माण्ड में नक्षत्र अपनी दिशा बदल लेते हैं
फिर क्या हो गया
अगर मैं बदल गई...!!
किसने... किससे... बदलने के नियम सीखे
यह राज तो राज ही रहे तो अच्छा है
कभी अपने 'मन' के सतह
को टटोलना
खोद कर देखना
उसकी गहराई में
मेरा हर बदलाव
अपनी पीड़ा उजागर
करता दिखेगा तुम्हें...
महसूसना अपनी स्मृतियों में
उपडुप करते मेरे प्यार को
तभी जान पाओगे
मेरे अंदर के ग्लेशियर का
ज्वालामुखी में बदलना...
तड़प उठती हूँ मैं
जब देखती हूँ
अपने कलम की भाषा को बदलते हुए
कलम के ज्वारभाटे को
थामना मुश्किल हो जाता है मेरे लिए
अपने शब्दों की शक्ल
आप देख काँप उठती हूँ मैं
अब तो इतना बदल गई हूँ की
अतीत, वर्तमान और भविष्य का भी
ज्ञान नहीं रहता...
गुमां नहीं की बदल गई हूँ मैं
पर हाँ!
बीते कल की यादों से इतर
आगामी कल का बदलाव
स्वीकार है मुझे...!
परंतु कुछ बातें अब भी है
जिनको बदलना नामुमकिन है, मेरे लिए
मेरे कानों के गलियारे में गूंजते
तुम्हारे कुछ 'शब्द'...
मेरे पोर-पोर में रिस चुके
तुम्हारे उस अहसास को बदलना
बहुत ही मुश्किल है!!!
जो
धीरे-धीरे मन के भीतर गहरे
जाकर अपना स्थान बना चुके हैं...!
नहीं बदल पाती हूँ
तो वो है
गहन, निस्पंद,
निर्जनता में तुमसे मिलने की
अपनी संपूर्ण कामना को...!!!!
- अब तुम पर है...
मेरे इस बदलाव को स्वीकार करो या तुम बदल जाओ...!!!!!