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बन जाय भले शुक की उक से / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

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बन जाय भले शुक की उक से,
सुख की दुख से अवनी न बनी।
रुक जाय चली गति जो जग की,
जन से जन-जीवन की न ठनी।
बिगड़ी बनती बन जाय सही,
डगड़ी गड़ती गड़ जाय मही,
कटती पटती पट जाय तही,
तन की मन से तनती न तनी।
सब लोग भले भिड़ जांय यहाँ,
जो चढ़े सिर थे, चिढ़ जांय यहाँ,
जो गिरा उसकी न गिरी लवनी।