भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बनहिं बन रस ढरकावत डोलैं / हनुमानप्रसाद पोद्दार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बनहिं बन रस ढरकावत डोलैं।
राधा-माधव अंसनि कर धरि मधुरी बानी बोलैं॥
स्याम-मेघ राधा-दामिनि नित नव रस-निर्झर खोलैं।
बिहरत दो‌उ रसमा परस्पर, अमिय प्रेमरस घोलैं॥
रसपूरित भुवि खग-मृग-तरु-सर-सरिता करत किलोलैं।
उमग्यौ मधु-रस-निधि अगाध, अति उछलत बिबिध हिलोलैं॥