बनारस : दो शब्दचित्र / रवीन्द्र प्रभात
1.
पिस्ता-बादाम की ठंडई में
भांग के सुंदर संयोग से
बना-रस
एक घूँट में गटकते हुए
बनारस
गुम हो जाता सरेशाम
’दशाश्वमेध’ की संकरी गलियों में !
और उस वक़्त
उसके लिए मायने नही रखती
'गोदौलीया' की उद्भ्रान्त भीड़
शोर-शराबा/ चीख़-पुकार आदि
सहजता से
मुस्कुराती हिंसा को देखकर
मुस्कुरा देता वह भी
कि नहीं होता उसे
गंगा के मैलेपन का दर्द
और "ज्ञानवापी" के विभेद का एहसास
कभी भी.......!
पसंद करता वह भी
ब्यूरोक्रेट्स की तरह
निरंकुशता का पैबंद
व्यवस्थाओं के नाम पर
और मनोरंजन के नाम पर
भौतिकता का नंगा नृत्य
रात के अंधेरे में !
अहले सुबह
घड़ी-घंटों की गूँज
और मंत्रोचारण के बीच
डुबकी लगाते हुए गंगा में
देता अपनी प्राचीन संस्कृति की दुहाई
अलमस्त सन्यासियों की मानिन्द
निर्लज्जतापूर्वक !
आख़री समय तक रखना चाहता वह
आडंबरों से यु्क्त हँसी
और सैलानी हवा के झकोरों से
गुदगुदाती ज़िंदगी
ताकि वजूद बना रहे
सचमुच-
बनारस शहर नहीं
गोया नेता हो गया है
सत्तापक्ष का.....! !
2
करतालों की जगह
बजने लगा है पाखंड
अंधविश्वास-
रूढ़ियों को कंधे पर लटकाए
सीढ़ियाँ चढ़ रहा है चट्ट-चट्ट
लज्जित हैं सुबह की किरणें
खंड-खंड तोता रटन्त यजमान लुभाते आख्यान
एक अखंड मु्जरा
एक तेलौस मेज़ पर
तले हुए नाश्ते के समान फैला पाश्चात्य
सुबह-ए-बनारस !