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बनारस से निकला हुआ आदमी / शिरीष कुमार मौर्य

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जनवरी की उफनती पूरबी धुंध
और गंगातट से अनवरत उठते उस थोड़े से धुँए के बीच
मैं आया इस शहर में
जहाँ आने का मुझे बरसो से
इन्तज़ार था

किसी भी दूसरे बड़े शहर की तरह
यहाँ भी
बहुत तेज़ भागती थी सड़कें
लेकिन रिक्शों, टैम्पू या मोटरसाइकिल-स्कूटरवालों में बवाल हो जाने पर
रह-रहकर
रूकने-थमने भी लगती थी

मुझे जाना था लंका और उससे भी आगे
सामने घाट
महेशनगर पश्चिम तक

मैं पहली बार शहर आए
किसी गँवई किसान-सा निहारता था
चीज़ों को
अलबत्ता मैंने देखे थे कई शहर
किसान भी कभी नहीं था
और रहा गँवई होना -
तो उसके बारे में खुद ही बता पाना
कतई मुमकिन नहीं
किसी भी कवि के लिए

स्टेशन छोड़ते ही यह शुरू हो जाता था
जिसे हम बनारस कहते हैं
बहुत प्राचीन-सी दिखती कुछ इमारतों के बीच
अचानक ही
निकल आती थी
रिलायंस वेब वर्ल्ड जैसी कोई अपरिचित परालौकिक दुनिया
मैंने नहीं पढ़े थे शास्त्र
लेकिन उनकी बहुश्रुत धारणा के मुताबिक
यह शहर पहले ही
परलोक की राह पर था
जिसे सुधारने न जाने कहाँ से भटकते आते थे साधू-सन्यासी
औरतें रोती-कलपती
अपना वैधव्य काटने
बाद में विदेशी भी आने लगे बेहिसाब
इस लोक के सीमान्त पर बसे
अपनी तरह के
एक अकेले
अलबेले शहर को जानने

लेकिन
मैं इसलिए नहीं आया था यहाँ
मुझे कुछ लोगों से मिलना था
देखनी थीं
कुछ जगहें भी
लेकिन मुक्ति के लिए नहीं
बँध जाने के लिए
खोजनी थीं कुछ राहें
बचपन की
बरसों की ओट में छुपी
भूली-बिसरी गलियों में कहीं
कोई दुनिया थी
जो अब तलक मेरी थी

नानूकानू बाबा की मढ़िया
और उसके तले
मंत्र से कोयल को मार गिराते एक तांत्रिक की
धुंधली-सी याद भी
रास्तो पर उठते कोलाहल से कम नहीं थी

पता नहीं क्या कहेंगे इसे
पर पहँचते ही जाना था हरिश्चंद्र घाट
मेरे काँधों पर अपनी दादी के बाद
यह दूसरी देह
वाचस्पति जी की माँ की थी
बहुत हल्की
बहुत कोमल
वह शायद भीतर का संताप था
जो पड़ता था भारी
दिल में उठती कोई मसोस

घाट पर सर्वत्र मँडराते थे डोम
शास्त्रों की दुहाई देते एक व्यक्ति से
पैसों के लिए झगड़ते हुए कहा एक काले-मलंग डोम ने-
'किसी हरिश्चंद्र के बाप का नहीं
कल्लू डोम का है ये घाट!'
उनके बालक
लम्बे और रूखे बालों वाले
जैसे पुराणों से निकलकर उड़ाते पतंग
और लपकने को उन्हें
उलाँघते चले जाते
तुरन्त की बुझी चिताओं को भी

आसमान में
धुँए और गंध के साथ
उनका यह
अलिखित उत्साह भी था

पानी बहुत मैला
लगभग मरी हुई गंगा का
उसमें भी गुड़प-गुड़प डुबकी लगाते कछुए
जिनके लिए फेंका जाता शव का
कोई एक अधजला हिस्सा

शवयात्रा के अगुआ
डॉ0 गया सिंह पर नहीं चलता था रौब
किसी भी डोम का
कीनाराम सम्प्रदाय के वे कुशल अध्येता
गालियों से नवाज़ते उन्हें
लगभग समाधिष्ठ से थे

लगातार आते अंग्रेज़
तरह-तरह के कैमरे सम्भाले
देखते हिन्दुओं के इस आख़िरी सलाम को
उनकी औरतें भी लगभग नंगी
जिन्हें इस अवस्था में अपने बीच पाकर
किशोर और युवतर डोमों की जाँघों में
रह-रहकर
एक हर्षपूर्ण खुजली-सी उठती थी
खुजाते उसे वे
अचम्भित से लुंगी में हाथ डाल
टकटकी बाँधे
मानो ऑंखो ही ऑंखों में कहते
उनसे -
हमारी मजबूरी है यह
कृपया इस कार्य-व्यापार का कोई
अनुचित
या अश्लील अर्थ न लगाएँ

गहराती शाम में आए काशीनाथ जी
शोकमग्न
घाट पर उन्हें पा घुटने छूने को लपके बी0एच0यू0 के
दो नवनियुक्त प्राध्यापक
जिन्हें अपने निकटतम भावबोध में
अगल-बगल लिए
वे एक बैंच पर विराजे
'यह शिरीष आया है रानीखेत से' - कहा वाचस्पति जी ने
पर शायद
दूर से आए किसी भी व्यक्ति से मिल पाने की
फुर्सत ही नहीं थी उनके पास
उस शाम एक बार मेरी तरफ अपनी ऑंखें चमका
वे पुन: कर्म में लीन हुए
मैं निहारने लगा गंगा के उस पार
रेती पर कंडे सुलगाए खाना पकाता था कोई
इस तरफ लगातार जल रहे शवों से
बेपरवाह
रात हम लौटे अस्सी-भदैनी से गुज़रते
और हमने पोई के यहाँ चाय पीना तय किया
लेकिन कुछ देर पहले तक
वह भी हमारे साथ घाट पर ही था
और अभी खोल नहीं पाया था
अपनी दुकान

पोई - उसी केदार का बेटा
बरसों रहा जिसका रिश्ता राजनीति और साहित्य के संसार से
सुना कई बरस पहले
गरबीली गरीबी के दौरान नामवर जी के कुर्ते की जेब में
अकसर ही
कुछ पैसे डाल दिया करता था

रात चढ़ी चली आती थी
बहुत रौशन
लेकिन बेरतरतीब-सा दीखता था लंका
सबसे ज्यादा चहल-पहल शाकाहारी भोजनालयों में थी
चौराहे पर खड़ी मूर्ति मालवीय जी की
गुज़रे बरसों की गर्द से ढँकी
उसी के पास एक ठेला
तली हुई मछली-मुर्गे-अंडे इत्यादि के सुस्वादु भार से शोभित
जहाँ लड़खड़ाते कदम बढ़ते कुछ नौजवान
ठीक सामने
विराट द्वार 'काशी हिन्दू विश्वविद्यालय' का
...

अजीब थी आधी रात की नीरवता
घर से कुछ दूर गंगा में डुबकी लगातीं शिशुमार
मछलियाँ सोतीं
एक सावधान डूबती-उतराती नींद
तल पर पाँव टिकाए पड़ें हों शायद कछुए भी
शहर नदी की तलछट में भी कहीं साफ़ चमकता था

तब भी
हमारी पलकों के भीतर नींद से ज्यादा धुँआ था
फेफड़ों में हवा से ज्यादा
एक गंध

बहुत ज़ोर से साँस भी नहीं ले सकते थे हम
अभी इस घर से कोई गया था
अभी इस घर में उसके जाने से अधिक
उसके होने का अहसास था
रसोई में पड़े बर्तनों के बीच शायद कुलबुला रहे थे
चूहे
खाना नहीं पका था इस रात
और उनका उपवास था
...

सुबह आयी तो जैसे सब कुछ धोते हुए
क्या इसी को कहते हैं
सुबहे-बनारस ?
क्या रोज़ यह आती है ऐसे ही?
गंगा के पानी से उठती भाप
बदलती हुई घने कुहरे में
कहीं से भटकता आता आरती का स्वर

कुछ भैंसें बहुत गदराए काले शरीर वाली
धीरे से पैठ जातीं
सुबह 6 बजे के शीतल पानी में
हले!हले! करते पुकारते उन्हें उनके ग्वाले
कुछ सूअर भी गली के कीच में लोट लगाते
छोड़ते थूथन से अपनी
गजब उसाँसे
जो बिल्कुल हमारे मुँह से निकलती भाप सरीखी ही
दिखती थीं
साइकिल पर जाते बलराज पांडे
रीडर हिन्दी बी.एच.यू.

सड़क के पास अचानक ही दिखता
किसी अचरज-सा एक पेड़
बादाम का
एक बच्चा लपकता जाता लेने
कुरकुरी जलेबी
एक लौटता चाशनी से तर पौलीथीन लटकाए
अभी पान का वक्त नहीं पर
दुकान साफ कर अगरबत्ताी जलाने में लीन
झब्बर मूँछोंवाला दुकानदार भी

यह धरती पर भोर का उतरना है
इस तरह कि बहुत हल्के से हट जाए चादर रात की
उतारकर जिसे
रखते तहाए
चले जाते हैं पीढ़ी दर पीढ़ी
बनारस के आदमी

अभी धुंध हटेगी
और राह पर आते-जातों की भरमार होगी
अभी खुलेंगे स्कूल
चलते चले जायेंगे रिक्शे
ढेर के ढेर बच्चों को लाद
अभी गुज़रेंगे माफियाओं के ट्रक
रेता-रोड़ी गिराते
जिनके पहियों से उछलकर
थाम ही लेगा
हर किसी का दामन
गङ्ढों में भरा गंदला पानी
अभी
एक मिस्त्री की साइकिल गुज़रेगी
जो जाता होगा
कहीं कुछ बनाने को
अभी गुज़रेगी ज़बरे की कार भी
हूटर और बत्ती से सजी
ललकारती सारे शहर को
एक अजब-सी
मदभरी अश्लील आवाज़ में

इन राहों पर दुनिया चलती है
ज़रूर चलते होंगे कहीं
इसे बचाने वाले भी
कुछ ही देर पहले वे उठे होंगे एक उचाट नींद से
कुछ ही देर पहले उन्होंने अपने कुनमुनाते हुए बच्चों के
मुँह देखे होंगे
अभी उनके जीवन में प्रेम उतरा होगा
अभी वे दिन भर के कामों का ब्यौरा तैयार करेंगे
और चल देंगे
कोई नहीं जानता
कि उनके कदम किस तरफ बढ़ेंगे
लौटेंगे
रोज़ ही की तरह पिटे हुए
या फिर चुपके से कहीं कोई एक हिसाब
बराबर कर देंगे

अभी तो उमड़ता ही जाता है
यह मानुष-प्रवाह
जिसमें अगर छुपा है हलाहल
जीवन का
तो कहीं थोड़ा-सा अमृत भी है
जिसकी एक बँद अभी उस बच्चे की ऑंखों में चमकी थी
जो अपना बस्ता उतार
रिक्शा चलाने की नाकाम कोशिश में था
दूसरी भी थी वहीं
रिक्शेवाले की पनियाली ऑंखों में
जो स्नेह से झिड़कता कहता था उसे - हटो बाबू साहेब
यह तुम्हारा काम नहीं!
...

बहुत शान्त दीखते थे बी.एच.यू. के रास्ते
टहलते निकलते लड़के-लड़कियाँ
'मैत्री' के आगे खड़े
चंदन पांडे, मयंक चतुर्वेदी, श्रीकान्त चौबे और अनिल
मेरे इन्तज़ार में
उनसे गले मिलते
अचानक लगा मुझे इसी गिरोह की तो तलाश थी
अजीब-सी भंगिमाओं से लैस हिन्दी के हमलावरों के बीच
कितना अच्छा था
कि इन छात्रों में से किसी की भी पढ़ाई में
हिन्दी शामिल नहीं थी

ज़िन्दगी की कहानियाँ लिखते
वे सपनों से भरे थे और हक़ीक़त से वाकिफ़
मैं अपनी ही दस बरस पुरानी शक्ल देखता था
उनमें
हम लंका की सड़क पर घूमते थे
यूनीवर्सल में किताबें टटोलते
आनी वाली दुनिया में अपने वजूद की सम्भावनाओं से भरे
हम जैसे और भी कई होंगे
जो घूमते होंगे किन्हीं दूसरी राहों पर
मिलेंगे एक दिन वे भी यों ही अचानक
वक्त के परदे से निकलकर
ये, वो और हम
सब दोस्त बनेंगे
अपनी दुनिया अपने हिसाब से रचेंगे

फिलहाल तो धूल थी और धूप
हमारे बीच
और हम बढ़ चले थे अपनी जुदा राहों पर
एक ही जगह जाने को
साथ थे पिता की उम्र के वाचस्पति जी
जिन्हें मैं चाचा कहता हँ
बुरा वक्त देख चुकने के बावजूद
उनकी ऑंखों में वही सपना बेहतर जिन्दगी का
और जोश
हमसे भी ज्यादा
साहित्य, सँस्कृति और विचार के स्वघोषित आकाओं के बरअक्स
उनके भीतर उमड़ता एक सच्चा संसार
जिसमें दीखते नागार्जुन, त्रिलोचन, शमशेर, धूमिल और केदार
और उनके साथ
कहीं-कहीं हमारे भी अक्स
दुविधाओं में घिरे राह तलाशते
किसी बड़े का हाथ पकड़ घर से निकलते
और लौटते
...

हम पैदल भटकते थे - वाचस्पति जी और मैं
जाना था लौहटिया
जहाँ मेरे बचपन का स्कूल था
याद आती थीं
प्रधानाध्यापिका मैडम शकुन्तला शुक्ल
उनका छह महीने का बच्चा
रोता नींद से जागकर गुँजाता हुआ सारी कक्षाओं को
व्योमेश
जो अब युवा आलोचक और रंगकर्मी बना
एक छोटी सड़क से निकलते हुए वाचस्पति जी ने कहा -
यहाँ कभी प्रेमचन्द रहते थे
थोड़ा आगे बड़ा गणेश
गाड़ियों की आवाजाही से बजबजाती सड़क
धुँए और शोर से भरी
इसी सब के बीच से मिली राह
और एक गली के आख़ीर में वही - बिलकुल वही इमारत
स्कूल की
और यह जीवन में पहली बार था
जब छुट्टी की घंटी बज चुकने के बाद के सन्नाटे में
मैं जा रहा था वहाँ

वहाँ मेरे बचपन की सीट थी
सत्ताइस साल बाद भी बची हुई
ज्यों की त्यों
अब उस पर कोई और बैठता था
मेरे लिए
वह लकड़ी नहीं एक समूचा समय था
धड़कता हुआ
मेरी हथेलियों के नीचे
जिसमें एक बच्चे का पूरा वजूद था
ब्लैकबोर्ड पर छूट गया था
उस दिन का सबक
जिसके आगे इतने बरस बाद भी
मैं लगभग बेबस था

बदल गयी मेरी ज़िन्दगी
लेकिन
बनारस ने अब तलक कुछ भी नहीं बदला था
यह वहीं था
सत्ताइस बरस पहले
खोलता हुआ
दुनिया को बहुत सम्भालकर
मेरे आगे
...

गाड़ी खुलने को थी - बुन्देलखण्ड एक्सप्रेस
जाती पूरब से दूर ग्वालियर की तरफ
इससे ही जाना था मुझे
याद आते थे कल शाम इसी स्टेशन के पुल पर खड़े
कवि ज्ञानेन्द्रपति
देखते अपने में गुम न जाने क्या-क्या
गुज़रता जाता था एक सैलाब
बैग-अटैची बक्सा-पेटी
गठरी-गुदड़ी लिए कई-कई तरह के मुसाफिरों का
मेरी निगाह लौटने वालों पर थी
वे अलग ही दिखते थे
जाने वालों से
उनके चेहरे पर थकान से अधिक चमक नज़र आती थी
वे दिल्ली और पंजाब से आते थे
महीनों की कमाई लिए
कुछ अभिजन भी
अपनी सार्वभौमिक मुद्रा से लैस
जो एक निगाह देख भर लेने से
शक करते थे

छोड़ने आए वाचस्पति जी की ऑंखों में
अचानक पढ़ा मैंने- विदाई!
अब मुझे चले जाना था सीटी बजाती इसी गाड़ी में
जो मेरे सामने खड़ी थी
भारतीय रेल का सबसे प्रामाणिक संस्करण
प्लेटफार्म भरा हुआ आने-जाने और उनसे भी ज्यादा
छोड़ने-लेने आनेवालों से
सीट दिला देने में कुशल कुली और टी.टी. भी
अपने-अपने सौदों में लीन
समय दोपहर का साढ़े तीन
कहीं पहँचना भी दरअसल कहीं से छूट जाना है
लेकिन बनारस में पहँचा फिर नहीं छूटता
कहते हैं लोग
इस बात को याद करने का यही सबसे वाजिब समय था
अपनी तयशुदा मध्दम रफ्तार से चल रही थी ट्रेन
और पीछे बगटुट भाग रहा था बनारस
मुझे मालूम था
कुछ ही पलों में यह आगे निकल जाएगा
बार-बार मेरे सामने आएगा

इस दुनिया में क्या किसी को मालूम है
बनारस से निकला हुआ आदमी
आख़िर कहाँ जाएगा?