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बने मंजूष यह अंतस् / अज्ञेय
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किसी एकान्त का लघु द्वीप मेरे प्राण में बच जाय
जिस से लोक-रव भी कर्म के समवेत में रच जाय।
बने मंजूष यह अन्तस् समर्पण के हुताशन का-
अकरुणा का हलाहल भी रसायन बन मुझे पच जाय।
इलाहाबाद, 29 दिसम्बर, 1949