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बन्धुआ मुक्त हुआ कोई / आरसी चौहान

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किसान के जहन से
अब दफ़न हो चुकी है
अतीत की क़ब्र में
दो बैलों की जोड़ी
वह भोर ही उठता है

नाँद में सानी-पानी की जगह
अपने ट्रैक्टर में नाप कर डालता है
तेल
धो-पोंछ कर दिखाता है अगरबत्ती
ठोक-ठठाकर देखता है टायरों में
अपने बैलों के खुर
हैण्डिल में सींग
व उसके हेडलाइट में
आँख गडा़कर झाँकता
बहुत देर तक
जो धीरे-धीरे पूरे बैल की आकृति मे
बदल रहा है

समय --
खेत जोतते ट्रैक्टर के पीछे-पीछे
दौड़ रहा है
कठोर से कठोर परतें टूट रही हैं
सोंधी महक उठी है मिट्टी में
जैसे कहीं
एक बन्धुआ मुक्त
हुआ हो कोई।