बबूल / चित्रा पंवार
हम लड़कियाँ
अनचाही, बिनबुलाई, बिनमांगी
फसल कटाई के दिनों में
बिन मांगी बरसात-सी टपक आईं
जंगली फूलों-सी उग आईं
बंजर, ऊसर, पनीली, रेतीली, पथरीली
संभावनाविहीन दरारों में भी
प्रलय के समय जब
खतरे में पड़ गया होगा
पृथ्वी पर मौजूद जीवन
निश्चित ही मृत्यु को मात देकर
काल के जबड़े को फोड़ कर उग आई होगी
पीपल जैसी ही कोई बेहया लड़की
हाँ, हमने बचाएँ हैं इस पृथ्वी पर
जीवन के निशान
देव नहीं जानते थे
देह से परे का लगाव
एकिंदु, पुनर्नवा जैसे असंख्य पुरुषों को
हमने ही सिखाया है
आत्मा का प्रेम
पुरुषों ने स्त्री को त्यागा
ईश्वर, बुद्ध, संत कहलाए
किंतु परित्यक्त होने पर भी स्त्री बस स्त्री ही रही
सती होकर मात्र पतिव्रता
तुमने गुलाब से पाले पोसे बेटे
हम उपेक्षित खरपतवार-सी बढ़ती रहीं चुपचाप
बेटे आम का पेड़ थे
बड़े होने पर फल देने की आस में दूध दही से नहलाए जाते
हमारी बारी पर जवाब मिलता
कीकर (बबूल) कौन सींचता है भला?