बम्बई-1 / विजय कुमार
तमाम लोग जब नींद में होते हैं
उस वक़्त भी एक शहर जागता है
धीरे-धीरे
फिर से खुलता है
दिन रात की अनन्त दुनिया में
पिछली शाम अधूरी रही बातें
समुद्र से आती हवाओं में
अब भी हैं
चुपचाप बड़ी इमारतों के नीचे से
चुपचाप
रात भर इकट्ठा होती हैं पदचापें
रात भर नि:शब्द झरती हैं पत्तियाँ
ऊंघते इस्पाती फाटकों पर
हर बड़ी सड़क का
दूधिया उजाला
इस वक़्त
कल की सम्भावित दुर्घटनाओं का
हिसाब-किताब कर रहा है
नहीं होते मनुष्य रात को सड़कों पर
उनकी इच्छाएँ
सफ़ेद चोगों में
सीमेंट के खम्भों से टिकी खड़ी हैं
सोए हुए दिमाग़ों से
आँकड़े निकल-निकल
गलियारों में घूमते हैं बेखटके
कहीं कोई आवाज़ नहीं
न पहिए की, न रेल की सीटी की
शेषनाग के फन पर टिकी ओ पृथ्वी !
इस वक़्त कौन है गवाह
इन चमकते हुए चौरस्तों का
इस घड़ी ये
सुबह की प्रतीक्षा में
कितने खूँख़ार लग रहे हैं