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बम्बई-2 / विजय कुमार
Kavita Kosh से
बाहर तब रात थी
हमने पाँव
घुटनों तक समेट लिए थे
पूरी रात हमने देखा
ख़ाली जगहों पर इमारतें खड़ी हो रही थीं
पूरी रात
लाचार समुद्र
शहर से कुछ और दूर खिसक रहा था
पूरी रात
पिता बग़ल में पोटली दबाए
शहर में पता ढूंढते फिर रहे थे
पूरी रात
क्षितिज पर इंजन गरज रहे थे
काग़ज़ों के ढेर पर ढेर
लगते गए इमारतों से भी ऊँचे
घने कोहरे में
चीखें और आत्महत्याएँ थीं
पूरी रात
हवाएँ लाती रहीं अपने साथ
जलते हुए रबड़ की दुर्गन्ध
आकाश
यह कैसा आकाश था
इतनी रात और अंधेरे में
अपने साथ
कोई स्मृति भी नहीं
इस तरह हम
छूटते गए अकेले
नहीं यह बुख़ार नहीं था
हम स्तब्ध पड़े थे
ख़ामोश
वह हँसी
हमारी नहीं थी
छाती से निकलती हुई
खोखली हो...हो...