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बरगद की छांव / अर्चना कुमारी
Kavita Kosh से
एक दिन नष्ट होने का तय है
तय है कि बीत जाना है
सर पर घुंघराले लटों की तरह
उलझते रहेंगे अहं के तंतु
थामी गयी हथेलियों में
चुभते रहेंगे नाखून
गले मिलते ही
उभर आएंगे दंतक्षत
आंखों में चुभेंगी
उठी हुई ऊंगलियां
पीठ पर भंवर होगा
मन में बवंडर
नहीं झुकने का अर्थ
ताड़ का वृक्ष नहीं होता
झुकने की पात्रता
धनुष जानता है
भीड़ के कोलाहल में
हृदय मनुज पहचानता है
प्रेम करना सीखना होगा
दिलों पर राज करने से पहले
बरगदों की छांव में
पलते हैं कितने संसार...।