बरताव / शरद रंजन शरद
बरसों पुराने पड़े पन्ने
दाग़ रह गये हैं
उँगलियों और नमी के
कुछ स्याहियों के छींटे
रद्दी के भाव बेचा नहीं इन्हें
रखा है तह पर तह कर
लिबास जो होते गये छोटे
जगह-जगह मसकने
और दरकने के बावजूद
नयी चीज़ों से बदले नहीं
देखा इन्हीं से
अपने जीवन का अक्स
छूटते समय के बरअक्स
ईंट कंकरीट से बने घर में
बचाये रखी मिट्टी की परत
सुरक्षित है जहाँ
कई पीढ़ियों की छुअन
पहले भोर से जल रहे
सूरज और चूल्हे की आँच पर
पक और पग रहा मन
पहली ही साँझ से लगाये रखा
आँखों में अंजन
कद काटते बड़प्पन में
जुगाया स्मृतियों का बालपन
पथराये शरीर की खोह में
आत्मा का यौवन
दिलो-दिमाग़ के दराज़ों में हैं
लाल-काली तारीख़ों वाली डायरियाँ
सही-ग़लत के धूल-भरे निशान
धुँधली लिखावटों वाली अनमेल चिट्ठियाँ
पुरानी यात्राओं के सामान
मुझसे अब तक जुड़े
अपनों के अक्षय कोष
देखती कहती है मानुषी
जाने कितनों से रहा तुम्हारा प्रेम
किस-किससे जुड़ी जान !