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बरसते हैं ज़ुबाँ से फूल दिल में ख़ार होते हैं / अशोक रावत

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बरसते हैं ज़ुबाँ से फूल दिल में ख़ार होते हैं,
भले इंसान के भी अब कई किरदार होते हैं.

न हमसे राज़ अपने बाँटती हैं खिड़कियाँ घर की,
न हमसे बेतक़ल्लुफ़ अब दरो-दीवार होते हैं.

ये सारा वक़्त काग़ज़ मोड़ने में क्यूँ लगाते हो,
कहीं काग़ज़ की नावों से समंदर पार होते है.

बग़ीचे में कि जंगल में, बड़े हों या कि छोटे हों,
किसी भी नस्ल के हों पेड़ सब ख़ुद्दार होते हैं.

उसूलों का सफ़र कोई शुरू यूँ ही नहीं करता,
हमें मालूम था ये रास्ते दुश्वार होते है.

भले कम लोग होते हों खड़े सच के समर्थन में,
मगर हर दौर में सच के भी पैरोकार होते हैं.