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बरसात, रेत और जिंदगी / अश्वनी शर्मा
Kavita Kosh से
टूट कर बरसी बरसात के बाद
इन टीलों पर
बहुत आसान होता है
रेत को किसी भी रूप में ढालना
मेरे पांव पर
रेत को थपक-थपक कर
तुम ने जो इग्लुनुमा
रचना बनाई थी
कहा था उसे घर
मैं भी बहुत तल्लीनता से
इकटठ्े कर रहा था
उसे सजाने के सामान
कोई तिनका, कंकर, कांटा
किसी झाड़ी की डाली
कोई यूं ही सा
जंगली फूल
चिकनी मिट्टी के ढेले
तुमने सबको
कोई नाम कोई अर्थ
दे दिया था
अगले दिन जब
हम वहां पहुंचे
तो कुछ नहीं था
एक आंधी उड़ा ले गयी थी
सब कुछ
रेत ने
महसूस किये थे
हमारे वो
सूखे आंसू
रूंधे गले
सीने में उठती पीर
और पेट में
उड़ती तितलियां
तब हम कितनी शिद्दत से
महसूस करते थे
छोटे-छोटे सुख-दुःख
कहां जानता था तब मैं
जिन्दगी ऐसे ही
घरौंदे बनाने
और सुख-दुःख सहेजने का नाम है।