भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बरसात / प्रयाग शुक्ल
Kavita Kosh से
एक दिन अचानक चौंक कर, दुपहर
की नींद के बाद हम देखते हैं,
बदल दिया है बहुत-कुछ बरसात ने।
हम देखते हैं धूप, छाया के साथ
सामने की खाली पड़ी जगह की घास,
दूर-पास के पेड़-पौधे, घने काले होने
की हद तक हरे।
रह-रह कर चलती हवा में हम
देखते हैं खिड़की से :
सहसा तन कर सीधे, आँखें फैलाते
जैसे किसी नए अनुभव की ओर
लगाए, कान भी। सुनते हुए बहुत-कुछ--
मेज़ पर रखी चाय के साथ
बैठे चुपचाप, सोचते क्या तुमने भी
वही सुना, देखा
जो मैंने।