बर्लिन की दीवार / 26 / हरबिन्दर सिंह गिल
पत्थर निर्जीव नहीं हैं
वे अपने आप में संगीत भी हैं।
यदि ऐसा न होता
प्रकृति अपने आप में
बोरान होकर रह जाती।
पाटियों की खामोशी में
बहती नदियों का पानी
और बलखाता गिरता झरना
इन पत्थरों से ही टकराकर
पैदा करता है संगीत।
जिसमें अपना ही
एक गीत होता है
और प्रकृति के सच्चाई की
निकलती है एक वो धुन
जो बनकर रह जाती है, धड़कन।
और इन्हीं धड़कनों में जाकर
थका हारा मानव खोजता है अपनापन
जो उसे अपनो से कभी न मिला
न मिला समाज से भी
जिसमें लिये फिरता है
वह अपना नाशवान शरीर।
तभी तो बर्लिन दीवार के
ये ढ़हले टुकड़े पत्थरों के
पैदा कर रहे हैं एक धुन
आपसी समझ और लगाव की
जिसे सुनने के लिये
मानवता सदियों से तरस रही थी
क्योंकि शायद मानव के पास
वह लय नहीं थी
जो इन पत्थरों ने पैदा की है।