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बलि पुरुष / अज्ञेय
Kavita Kosh से
ख़ून के धब्बों से
अँतराते हुए
पैरों के सम, निधड़क छापे।
भीड़ की आँखों में बरसती घृणा के
पार जाते हुए
उस के प्राण क्यों नहीं काँपे?
सभी पहचानते थे कि वह
निरीह है, अकेला है, अन्तर्मुखी है :
पर क्या जानते थे कि वह बलि मनोनीत है
इस ज्ञान में वह कितना सुखी है?