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बस तुम्हारा नाम गाते / राकेश खंडेलवाल

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देहरी से भोर की ले द्वार तक अस्ताचलों के
गीत मैं लिखता रहा हूँ बस तुम्हारे, बादलों पे
व्योम के इस कैन्वस को टाँग खूँटी पर क्षितिज की
चित्रमय करता रहा हूँ रंग लेकर आँचलों से

ध्यान का हो केन्द्र मेरे एक वंशीवादिनी तुम
बीतते हैं ज़िन्दगी के पल तुम्हारा नाम गाते

चाँदनी की रश्मियों को लेखनी अपनी बना कर
पत्र पर निशिगंध के लिखता रहा हूँ मै सजाकर
सोम से टपकी सुधा के अक्षरों की वर्णमाला
से चुने वह शब्द , कहते नाम जो बस एक गाकर

हो मेरे अस्तित्व का आधार तुम ही बस सुनयने
एक पल झिझका नहीं हूँ, ये सकल जग को बताते

एक पाखी के परों की है प्रथम जो फड़फड़ाहट
दीप की इक वर्त्तिका की है प्रथम जो जगमगाहट
इन सभी से एक बस आभास मिलता , जो तुम्हारा
चक्र की गति में समय के, बस तुम्हारी एक आहट

जो सुघर मोती पगों की चाप से छिटके हुए हैं
वे डगर पर राग की इक रागिनी अद्‍भुत जगाते

गान में गंधर्व के है गूँजती शहनाईयों का
देवपुर की वाटिका में पुष्प की अँगड़ाइयों का
स्रोत बन कर प्रेरणा का, रूप शतरूपे रहा है
षोडसी श्रॄंगार करती गेह की अँगनाईयों का

जो न होते पाँव से चुम्बित तुम्हारे, कौन पाता
नूपुरों को, नॄत्य करती पेंजनी को झनझनाते