बस भी करो अम्मा / पूनम सूद
अम्मा की जुबाँ थी
मार्निंग अलार्म से
रात की लोरी तक
बिना थके चलती
बच्चों के पीछे दौड़ती
स्कूल भेज उन्हें
बाबू की सुध लेती
उनसे कह-सुन
नौकरों के पीछे पड़ जाती।
फिर, हो जाता शुरु-अम्मा का सोशल वर्क
गाँव की अनपढ़, कम पढ़ी-लिखी
औरतों को आत्म निर्भर बनाने की माथापच्ची
शाम से घर पर
अपने और आस-पड़ोस के बच्चों की पढ़ाई;
बागीचा, माली, रसोई सफायी
रात के खाने पर लेती अम्मा
परिवार से पूरे दिन का हिसाब
बाद उसके शुरु होती
सबको वक्त पर सुलाने की कवायद
हम बड़े फिर अधेड़ हुए
अम्मा वही रहीं
हम कहते 'बस भी करो, अम्मा'
पर अम्मा भला कहाँ
बस में आने वाली थीं
परन्तु अब
अम्मा रुकने लगीं थीं
भूल जाती, रुक-सी जाती
बोलते बतियाते शब्द हेरती
डाक्टर कहता डिमेन्शिया हुआ है
उम्र के साथ बढ़ गया रोग
अम्मा गुमसुम से गुम हो गई
बस देर तक निशब्द देखती रहती
अलार्म बजता सूरज उगता
रिमाइंडर के साथ दिन सेट रहता
अजेण्डा लिस्ट सब बतलाता चलता
नहीं कुछ कहती बतलाती
वह थी अम्मा की जुबां
यूं तो भावशून्य आँखों
के दबे गुब्बार और
सिले हुए होंठ की हल्की कंपन से
इतना कुछ कह जातीं अम्मा
कि नज़रे चुराते हम
यदा-कदा आवाज़ देकर बुला लेतीं
तो लगता शायद कुछ कहना चाहतीं
भीतर तूफानी द्वंद्ध को बाहर की राह दिखाना चाहती
पर पुरानी टूटी फूटी बातें और
आँखों में एक खोखले शंख-सा गहरा सन्नाटा देख
हम अम्मा की गोद में मुंह छुपाते
हाथ ऊपर उठा उसके थके चेहरे की झुर्रियाँ सहलाते
और धीमे धीरे लहज़े में कहते
बोलो न अम्मा
जो जी में आये कह डालो
यूं अनजानों की तरह देखना करो बंद
पहले की तरह जिसको बोलना है
जितना बोलना है बोलो
कभी कोई न कहेगा अब से
"बस भी करो अम्मा बस भी करो"