भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बसंत के भौंरे / हरिऔध

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गूँजकर, झुक कर, झिझक कर, झूमकर।
भौंर करके झौंर हैं रस ले रहे।
फूल का खिलना, बिहँसना, बिलसना।
दिल लुभाना देख हैं दिल दे रहे।

गूँजते गूँजते उमग में आ।
हैं बहुत चौंक चौंक कर अड़ते।
चाव से चूम चूम कलियों को।
मनचले भौंर हैं मचल पड़ते।

हैं रहे घूम घूम रस लेते।
घूम से झूम झूम आते हैं।
देह-सुधा भूल भूल कर भौंरे।
फूल को चूम चूम आते हैं।

गूँजते हैं, ललक लपटते हैं।
हैं दिखाते बने हुए बौरे।
कर रहे हैं नहीं रसिकता कम।
रसभरे फल के रसिक भौंरे।

चौगुने चाव साथ रस पी पी।
झौंर वह ठौर ठौर करती है।
आँख भर देख देख फूल फबन।
भाँवरें भौंर भीर भरती है।