बसन्त-8 / नज़ीर अकबराबादी
अ़ालम में जब बहार की आकर लगंत हो।
दिल को नहीं लगन हो मजे़ की लगंत हो॥
महबूब दिलवरों से निगह की लडं़त हो।
इश्रत हो सुख हो ऐश हो और जी निश्चन्त हो॥
जब देखिए बसंत कि कैसी बसंत हो॥1॥
अब्बल तो जाफ़रां से मक़ां ज़र्द ज़र्द हों।
सहरा ओ बाग़ो अहले जहां ज़र्द ज़र्द हों॥
जोड़ें बसंतियों से निहां ज़र्द-ज़र्द हों।
इकदम तो सब ज़मीनो जमां ज़र्द-ज़र्द हों॥
जब देखिए बसंत तो कैसी बसंत हो॥2॥
मैदां हों सब्ज़ साफ़ चमकती भी रेत हो।
साक़ी भी अपने जाम सुराही समेत हो॥
कोई नशे में मस्त हो कोई सचेत हो।
दिलबर गले लिपटते हों सरसों का खेत हो॥
जब देखिए बसंत कि कैसी बसंत हो॥3॥
आंखों में छा रहे हों बहारों के आवो रंग।
महबूब गुलबदन हों खिचे हो बगल में तंग॥
बजते हों ताल ढोलक व सारंगी ओ मुंहचंग।
चलते हों जाम ऐश के होते हों रंग रंग॥
जब देखिए बसंत कि कैसी बसंत हो॥4॥
चारों तरफ़ से ऐशो तरब के निशान हों।
सुथरे बिछे हों फ़र्श धरे हार पान हों॥
बैठे हुए बग़ल में कई आह जान हो।
पर्दे पड़े हों ज़र्द सुनहरी मकान हों॥
जब देखिए बसंत कि कैसी बसंत हो॥5॥
कसरत से तायफ़ों की मची हो उलट पुलट।
चोली किसी की मसकी हो अंगिया रही हो कट॥
बैठे हों बनके नाज़नीं परियों के ग़ट के ग़ट।
जाते हों दौड़-दौड़ गले से लिपट-लिपट॥
अब देखिए बसंत कि कैसी बसंत हो॥6॥
वह सैर हो कि जावे जिधर की तरफ निगाह।
जो बाल भी ज़र्द चमके हो कज कुलाह॥
पी-पी शराब मस्त हों हंसते हों वाह वाह।
इसमें मियां ”नज़ीर“ भी पीते हों वाह वाह॥
जब देखिए बसंत कि कैसी बसंत हो॥7॥