भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बहकी हुई है चाल, कोई देखता न हो / गुलाब खंडेलवाल
Kavita Kosh से
बहकी हुई है चाल, कोई देखता न हो
ऐसा हमारा हाल, कोई देखता न हो
हम चाहते हैं, प्यार तेरा देख ले दुनिया
यह भी है पर ख़याल, कोई देखता न हो
क्या तू न ख़ुद को भी था दिखाने को बेक़रार
तब क्यों है यह सवाल, 'कोई देखता न हो'!
दम भर कहीं नज़र जो उलझ ही गयी तो क्या!
दिल को ज़रा सँभाल, कोई देखता न हो
क्यों फूल रहा आप ही अपने में तू, गुलाब!
जब तेरा यह कमाल कोई देखता न हो