भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बहता चल रे मेरा मन / अनिरुद्ध प्रसाद विमल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

साथ नदी की धारा के तू, बहता चल रे मेरा मन।
चलना तुमको दूर बहुत है
मंजिल भी नजदीक नहीं,
आकुल उर की ब्यथा-वेदना
सब सीमा को तोड़ चली।
सुख-दुख के दोनों उपकुलों से,
टकराता जा रे पागल मन।
साथ नदी की धारा के तू, बहता चल रे मेरा मन
विपदा में रहकर एक अकेला,
खुद को मैंने खूब संभाला।
चाह नहीं है साथ किसी की ?

फिर क्यों मेरे साथ है मेला ?
वृन्द-वृन्द के फूल-फूल पर,
भंवरे का उन्मन गुंजन।
साथ नदी की धारा के तू, बहता चल रे मेरा मन।
दुनियाँ जीती आश लिए हैं
फिर क्यों तुम हुए निराश कहो यूँ ?
लड़ना ही केवल लड़ना है
भार हार का दंश सहूं क्यूँ ?
कलियों की सुरभि लेकर ही,
सरभित हैं सारे वन उपवन।
आँसू लेकर प्रेम गीत का,
गाता चल रे मेरा मन।
एक उदासी का है आलम
सुन फिर भी गीतों का सरगम।
जीने की चाहत लेकर एक
ला प्रकाश ! मिट जाये तम।
उठती लोल लहरियों से,
यह किसका मूक निमंत्रण ?
तूफानों से लड़ने का संदेश,
लेता चल रे मेरा मन।