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बहती नदी / बीना बेंजवाल

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पहाड़ के कलेजे को पिघलाकर
बहती रहती है सदा
समतल मैदानों के लिए
इन ऊँचे-नीचे पर्वतों को छोड़कर
ढालदार रास्तों से
दौड़ती है तीव्र गति से
अपने संगी-साथियों से मुख मोड़
जाती है वहाँ
जहाँ मिलेगा उसे
भरपूर सुख
पर नहीं जानती वह
जिन पर्वत श्रेणियों से
छुड़ाना चाहती है दामन
उन्हीं की जड़ी-बूटियों से
बनता है उसका जल अमृत
जबकि जैसे ही छोड़ती है वह
इन पहाड़ों की गोद
वैसे ही खो जाती है उसकी
खिलखिलाती हँसी
सबसे बतियाता कलकल स्वर
और खुशी छलकाती
दूधिया धार
और फिर
गुमसुम हो बहती रहती है
जगह-जगह से समेटे
अवसाद को सीने में ढोकर
सपाट मैदानों का यह उत्साह
एक दिन
स्वयं उसके कलेजे को पिघलाकर
बना देगा उसे बादल
और तब लौटना होगा उसे
इन्हीं पहाड़ों पर बारिश बनकर
कहते हैं-
‘जाएँगे भले ही पेड़ की शाखाओं पर
आना तो जड़ पर ही पड़ेगा।’