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बहार आई-गई हुई है / कैलाश झा 'किंकर'
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बहार आई-गई हुई है
कली तो अब बेकली हुई है।
नहीं मिला है सुकून दिल को
वफा कि चादर फटी हुई है।
बनी है खाई क़दम-कदम पर
अवाम की फिर ठगी हुई है।
ख़राब तबीयत हुई जो मेरी
अभी तलक माँ जगी हुई है।
सिमट गये हैं स्वयं में इतने
मिलन-जुलन में कमी हुई है।
निगाह "किंकर" पड़ी जो तेरी
ग़ज़ल ये बिल्कुल नयी हुई है।