बहुत दिनों से सोच रहा हूँ / धीरज श्रीवास्तव
बहुत दिनों से सोच रहा हूँ तुम पर कोई गीत लिखूँ!
अन्तर्मन के कोरे कागज पर तुमको मनमीत लिखूँ!
लिख दूँ कैसे नजर तुम्हारी
दिल के पार उतरती है!
और कामना कैसे मेरी
तुमको देख सँवरती है!
पंछी जैसे चहक रहे इस मन की सच्ची प्रीत लिखूँ!
बहुत दिनों से सोच रहा हूँ तुम पर कोई गीत लिखूँ!
लिख दूँ हवा महकती क्यों है
क्यों सागर लहराता है?
जब खुलते हैं केश तुम्हारे
क्यों तम ये गहराता है?
शरद चाँदनी क्यों तपती है? क्यों बदली ये रीत लिखूँ!
बहुत दिनों से सोच रहा हूँ तुम पर कोई गीत लिखूँ!
प्राण कहाँ पर बसते मेरे
जग कैसे ये चलता है?
किसका रंग खिला फूलों पर
कौन मधुप बन छलता है?
एक एक कर सब लिख डालूँ अंतर का संगीत लिखूँ!
बहुत दिनों से सोच रहा हूँ तुम पर कोई गीत लिखूँ!
इन नयनों के युद्ध क्षेत्र में
तुमसे मैं हारा कैसे?
जीवन का सर्वस्व तुम्हीं पर
मैंने यूँ वारा कैसे?
आज पराजय लिख दूँ अपनी और तुम्हारी जीत लिखूँ!
बहुत दिनों से सोच रहा हूँ तुम पर कोई गीत लिखूँ!