बहुत महंगी हो गयी है रोशनियाँ / महेश सन्तोषी
बहुत महंगी हो गई हैं रोशनियाँ
चलो यह शहर छोड़ कर कहीं और चलें हम।
अब अपने लिये नहीं हैं यहाँ रोटियाँ,
चलो यह शहर छोड़कर कहीं और चलें हम।
इतनी रेखाएँ खिंच गयी हैं
गरीबी के आसपास
कि रेखाओं का एक गणित बनकर रह गया है गरीब,
भूख की सरहदें दूर-दूर तक नहीं दिखतीं,
पर बहुत सी भूख इकट्ठी तो है
सिकुड़े पेट के करीब।
कुछ लोग बड़ी तेजी से बांट रहे हैं गरीबी
कल शायद गरीबों को छांटने की जरूरत ही न हो,
कल शायद आंकड़ों के आइने ही कम पड़ जाएँ।
गरीबों पर आंकड़ों की कोई जरूरत ही न हो।
अपने ही रहबरों से उजड़ गयीं अपनी बस्तियाँ
चलो यह शहर छोड़ कर कहीं और चलें हम।
अब अपने ही रहने लायक नहीं रहीं
अपनी ही बस्तियाँ,
चलो यह शहर छोड़ कर कहीं और चलें हम।
इस कदर जगह घेर ली है आदमियों ने
कि अब आदमियत के लिये कोई जगह ही नहीं बची,
कहते हैं कि कल रात एक अंधेरी गली के
एक अंधे कोने में
शहर के आखिरी ईमानदार ने भी कर ली खुदकुशी।
दूसरांे का दर्द अब दर्द की गिनती में नहीं आता।
दूसरों की पीड़ाएँ हो गयी हैं बेमानी,
कल शायद प्यासे ही झुलस जाएँगे लोग, कतारों में,
कोई नहीं देगा किसी को दो घूंट पानी,
बुझी हुई मशालों से नहीं सजतीं क्रांति की आरतियाँ,
चलो यह शहर छोड़कर कहीं और चलें हम।
ठण्डी राख से नहीं फूटेंगी अब,
इन्कलाब की चिनगारियाँ,
चलो यह शहर छोड़कर कहीं और चलें हम।