भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बाँट लेता हूँ / केशव
Kavita Kosh से
तुमसे जुड़्कर मैं
आँधी का रुख
अपनी ओर मोड़ लेता हूँ
तुमसे अलग होकर
खुद को
शुद स्ए जोड़ लेता हूँ
इस सिलसिले की मुँडेर पर बैठ
नहीं देख सका मैं
अपने कद से ऊपर
किसी फुनगी पर बैठी
अकेली चिड़िया तक को
फिर भी कैसे
अकेलेपन के काँच को
भीतर होने वाली
हल्की सी आहट से तोड़ लेता हूँ
कहीं कुछ है
जो तेज़ से तेज़ हथियार के सामने भी
खड़ा रहता है
निडर
जिसकी अदृष्य उंगली थामकर
अँधेरे के घने वृक्ष में
रंग बदलती के पत्ती को
पहचान लेता हूँ
और अपने नाटे दुःख के
तम्बू से निकलकर
खुद को
सबसे बाँट लेता हूँ