बाँधौं आजु, कौन तोहि छोरै / सूरदास
राग सारंग
बाँधौं आजु, कौन तोहि छोरै ।
बहुत लँगरई कीन्हीं मोसौं, भुज गहि ऊखल सौं जोरै ॥
जननी अति रिस जानि बँधायौ, निरखि बदन, लोचन जल ढोरै ।
यह सुनि ब्रज-जुवती सब धाई, कहतिं कान्ह अब क्यौं नहिं छोरै ॥
ऊखल सौं गहि बाँधि जसोदा, मारन कौं साँटी कर तोरै ।
साँटी देखि ग्वालि पछितानी, बिकल भई जहँ-तहँ मुख मोरे ॥
सुनहु महरि! ऐसी न बूझिए, सुत बाँधति माखन-दधि थोरैं ।
सूर स्याम कौं बहुत सतायौ, चूक परी हम तैं यह भोरैं ॥
भावार्थ :-- (माता कहती हैं-) `आज तुझे बाँध (ही) दूँगी, देखती हूँ कौन खोलता है । साथ बहुत ऊधम तूने किया ।' यह कहकर हाथ पकड़कर (उसे) रस्सी के द्वारा ऊखलसे बाँध रही हैं । माता को अत्यन्त क्रोधित देखकर मोहन ने अपने को बँधवा लिया और माता के मुख की ओर देखकर आँखों से आँसू ढुलकाने लगे । यह सुनकर (कि माता ने श्याम को बाँध दिया) व्रज की सब युवतियाँ दौड़ी आयीं और कहने लगीं - `अब कन्हाई को छोड़ क्यों नहीं देती !' (किंतु) यशोदा जी तो ऊखल से उन्हें बाँधकर मारने के लिये हाथ से छड़ी तोड़ रही है । छड़ी देखकर गोपियों को उलाहना देने का) बड़ा पश्चाताप हुआ ( श्याम के पीटे जाने की सम्भावना से ही व्याकुल होकर उन्होंने जहाँ-तहाँ अपना मुख छिपा लिया )। सूरदास जी कहते हैं- (वे सब बोलीं-) `व्रजरानी! ऐसा तुम्हें नहीं करना चाहिये कि थोड़े-से मक्खन और दहीं के लिये तुमने पुत्र को बाँध दिया। श्यामसुन्दर को तुमने बहुत त्रास दिया, यह तो भोलेपन के कारण हम लोगों से भूल हो गयी (जो उलाहना दिया )'