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बाँस के बीटवा हे भँवरा गुँजरै / अंगिका लोकगीत

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   ♦   रचनाकार: अज्ञात

रात में पत्नी तेल लेकर पति की सेवा करने गई। उसका अरसिक पति सोया रह। निराश होकर क्रोध में वह अपने मायके चल पड़ी। पति को सवेरे पता चला कि पत्नी तो रूठकर मायके चली गई। वह ढूँढ़कर मनाने चला। बटोहियों से पता चला कि बेचारी रोती हुई रास्ते में जा रही है। पति अपनी नींद को भला-बुरा कहने लगा, जिसके कारण घई आई हुई उसकी पत्नी रूठकर मायके चली गई। बटोहियों से यह सुनकर कि रोने से उसका आधा आँचल भींग गया है, अरसिक पति का भी अस्थिर हो उठना स्वाभाविक है।
कहीं-कहीं स्त्रियाँ सोने के समय थके-माँदे पति को तेल लगाकर उसकी सेवा करती हैं।

बाँस के बीटवा<ref>बाँस के पौधों का एक समूह, जिसकी जड़ें एक-दूसरे से मिली रहती हैं</ref> हे भँवरा गुँजरै, ओहि चढ़ि कोयली सबद सुनाबै हे।
काठ के<ref>काठ की</ref> मलिया<ref>तेल रखने का कटोरीनुमा पात्र</ref> हे सरसों के तेल, चलि भेल सोहबी परभुजी के पास हे॥1॥
अगलियो रात हे बैठी गमायल, निरबुधि परभु मुखहुँ न बोलै हे।
होयत भिनुसरबा हे डोलिया फनैले, झाँपल डोलिया नेहर जाय हे॥2॥
बाट रे बटोहिया हे तोहिं मोरा भैया, अहि पंथे देखलौं धनि केरा डोलिया हे।
देखलौं में देखलौं हे कदम जूरी छहियाँ, आधा अँचरबा लोरे भींजल हे।
जो जो रे नीनियाँ रे तहुँ भेले बैरिनियाँ, आयल धनि रुसिय चलि गेलै हे॥3॥

शब्दार्थ
<references/>