भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बांझिन / हम्मर लेहू तोहर देह / भावना

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चिपड़ी पाथइत आई
दिन हम्मर बीतल
गोईठा बनबइत सांझ
चेथरी पेन्हले बीतल जुआनी
लोग कहे हमरा के बांझ।

भोर में उठ क कोनो मुंहे न देखे
गरिअबइत कहे हमरा ठाठ
हम्मर दुखरा कोनो न पतिआए
मरदुआ न करे कोनो बात।

लरिका न भेल त कोन गलती हम्मर
गिरे लोर जइसे बरसात
आंख कनइते हम्मर लाल-लाल भेल
डनिया कहे सब जमात।
की करु/कहाँ जाऊ
कुछो न बुझाइअऽ
काट देलक हम्मर पानी-भगत
रऊर असरा हए भगवानजी
बोलालू अब अपना पास।