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बात अनबात / राम सेंगर
Kavita Kosh से
बात में घुसेड़े अनबात,
टीप दे-दे कर,
यों डालें डोरा वे नई बातचीत का।
खींच और खींच और खींच
सूत्र कहाँ दीने सब टाँग
तान को बना दिया वितान
स्वर है या मुर्गे की बाँग
मूल प्रश्न से पिट कर
तर्क के भगोड़ों ने
संशय को नाम दिया फिर अपनी जीत का।
हर समय प्रसंगेतर खीझ
या अरण्यरोदन की हाय
ऐसी पुनरुक्तियाँ हजार
सुनें, कुढ़ें, मन नहीं अघाय
कलावंत की
भूतावेशी उद्दाम चहक
बिंब उभारे, असहज हारे भयभीत का।
भूलभुलैयों में रसखोज
संभवतः हो नया प्रयोग
ऐसी निष्पत्ति को प्रणाम
लक्षण से लगे मनोरोग
सब ठीकमठाक है
करें भी क्या बेढब की
कविता पर अनायास उमड़ी इस
प्रीत का।