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बात बीती विभावरी की / विमलेश शर्मा
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रीतते चांद की जम्हाई में
एक जादुई कालीन
नींद की आगोश में खिलता है
जागती सोती आंखों में
बुदबुद चंद ख़्वाब
हाथ भर की दूरी पर नज़र आते हैं
भोर एक चटक के साथ
खींच लाती है
उस दुनिया से जहाँ सुकून पसरा था
आत्मा फ़िर हर्फ़-दर-हर्फ़ जुटती है
सहेजती है
आवाज़ और शब्द-खनक की तीव्रता
पर कोई पूछ लेता है क्यों है
चाँद पर
कजली नदियों के निशां?
प्रत्युत्तर में बुझा मन मौन को चुनता है
यों ही सखि! एक दिन बाहर उगता है
और एक भीतर अवसान लेता है!