बादलों के जंगल / सुरेन्द्र स्निग्ध
बादलों के
सफ़ेद और श्यामल जंगलों को
चीर कर हम पहुँचे हैं यहाँ
अब वे जँगल झूम रहे हैं ।
जँगलों का यह शोर
सघन हो रहा है निरन्तर
ठहाके लगाता
कभी गुनगुनाता
फिर अचानक चुप हो जाता
फिर बरस जाता है ।
जंगलों का यह सौन्दर्य
जो अब तक छिपा था
डरा जाता है —
बहुत छुटपन में
जैसे डरा देती थी माँ
सुनाकर प्रेत के क़िस्से
फिर हँसा देती थी
जैसे
आज का बादल
बादलों के रूप को तो देखिए —
चमक पैदा कर रहे हैं मँच पर
जैसे मणिपुरी लड़कियाँ
गज़ब की ख़ूबसूरत
क्षिप्र गति से नाचतीं
पहनकर बादलों के वस्त्र
उनकी मुस्कुराहट
बादलों की है,
साथ में बैठी
गँगतोक से आई नई एक रँगकर्मी
घने जँगलों के कुहरे को
मन में बसाए
मुस्कराता है,
मिजो युवक
समझता नहीं हिन्दी
परन्तु मुस्कुराता है ।
रूप का औ’ भाव का
रँग का औ’ गन्ध का
इतना बरसना
और इनका
तृप्त होकर पान करना
नया जीवन
नई गति
और तीव्रता को
क्षिप्र करता है ।