बाबा अटल की समाधि पर / रणजीत
बाबा अटल की समाधि पर
क्यों थम गई हो तुम
अधबीच में ही क्यों ठिठक गया 'मत्था' तुम्हारा
संगमरमरी चौखट पर टिकते-टिकते
क्या मात्र एक नास्तिक की आँखों का तिरस्कार
भुला रहा है तुम्हें
स्वर्ग के लोभ, नरक के दंड,
भविष्य की सब आशाएँ-आशंकाएँ?
देख आया हूँ मैं
शिखर पर गिरी गाज की कारस्तानी
और सुन आया हूँ कारण
इस 'कहर' का
बूढ़े पुजारी से
कि प्रार्थना के वक्त भी कुछ 'नरक-कीट'
आँखें लड़ाने से नहीं डरते।
जानता हूँ:
गुरुद्वारे पर गिरी गाज की जिम्मेदार हो तुम (!)
पर इन्हीं तिरस्कार भरी आँखों से
मैं देखता रहूँगा तुम्हें
शायद मेरी अभिशप्त नज़रें
अपनी गुलामी का अहसास तुम्हें दे सकें
और इंतज़ार करता रहूँगा
उस दिन का
जब तुम सचमुच गाज बनकर
गुरुद्वारों पर, मंदिरों पर, मस्जिदों पर गिरोगी
और मेरा मुक्त प्यार
मेरी मुक्त आँखों में छल छला कर
तुम्हारी मुक्त इन्सानियत का अभिनंदन करेगा।