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बाबुल का आँगन / संजीव 'शशि'

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ठहरो कुछ पल और देख लूँ,
मैं बाबुल का आँगन।
जिस घर मैंने जन्म लिया है,
जिस 'कर' बीता बचपन॥

जिस घर मेरा बचपन बीता,
जिस आँगन में खेली।
गुड्डे-गुड़िया खेल-खिलौने,
पाये संग सहेली।
जाते-जाते इन यादों से,
भर लूँ अपना दामन।

छूट रहा है माँ का आँचल,
छूट रहा बाबुल का प्यार।
छूट रही भाई की उँगली,
छूट रहा उसका मनुहार।
छूट रहे ममता के रिश्ते,
टूट रहा हर बंधन।

फिर से गले लगा ले बाबुल,
जाने फिर कब आऊँ।
मैं तेरे आँगन की बुलबुल,
जाने फिर कब गाऊँ।
याद मुझे कर लेना बाबुल,
जब भी बरसे सावन।