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बारिश : चार प्रेम कविताएँ-1 / स्वप्निल श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
बारिश हो रही है
तुम बार-बार देखती हो आकाश
चमकती हुई बिजली को देखकर
चिहुंक उठती हो
जितने भूरे-भूरे काले-काले
बादल हैं आकाश में
ये समुन्दर का पानी पीकर
धरती के ऊपर हाथी की सूंड़
की तरह झुके हुए हैं
ख़ूब बारिश हो रही है
तुम्हें बारिश अच्छी लगती
है न प्रिये
वे तुम्हारे अच्छे दिन होते हैं
जब बारिश होती है
तुम्हें कालेज नहीं जाना पड़ता
तुम अपने खाली फ्रेम पर
काढ़ती हो स्वप्न
अनगिनत कल्पनाओं में
खो जाती हो
कितना कठिन आकाश है
तुम्हारे ऊपर
जिसमें जगमगा रहे हैं तारे
तुम्हारे हाथ इतने लम्बे नहीं
कि तुम उन्हें तोड़ सको
कुछ उमड़ते हुए बादल
मैंने तुम्हारी आँखों में
देखे हैं
जिस दिन वे बरसेंगे
सारी दुनिया भीग जाएगी