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बाल काण्ड / भाग 4 / रामचंद्रिका / केशवदास

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 (दोहा) सुमति-निज प्रताप दिनकर करत, लोचन कमल प्रकास।
पान खात मुसुकात मृदु, को यह केशवदास।।73।।
(सोरठा) विमति-नृप माणिक्य सुदेश, दक्षिण तिय जिय भावतो।
कटितट सुपट सुवेश, कल कांची (कांचीपुरी; करघनी) शुभ मंडई।।74।।
(दोहा) सुमति-कुंडल परसन मिस कहत, कहौ कौन यह राज।
शंभुशरासन गुन करौं, करनालंबित आज।।75।।
(सोरठा) विमति-जानहिं बुद्धिनिधान, मत्स्यराज यहि राज को।
समर समुद्र समान, जानत सब अवगाहि कै।।76।।
(सोरठा) सुमति-अंगराग-रंजित रुचिर, भूषण-भूषित देह।
कहत विदूषक सों कछू, सो पुनि को नृप येह।।77।।
(सोरठा) विमति-चंदनचित्रतरंग, (जिसके शरीर पर चंदन की तरंगे सी चित्रित हैं, जिसकी तरंगे चंदन से चित्रित हैं) सिंधुराज (सिंधु देश का राजा; महासागर) यह जानिए।
बहुत वाहिनी (सेना; नदी) मुक्तामाल (मोतियों की माला मोतियों का समूह) विशाल उर।।78।।
(दोहा) सिगरे राज समाज के कहे गोत्र गुण ग्राम।
देस सुभाव प्रभाव अरु, कुल बल विक्रम नाम।।79।।

घनाक्षरी

पावक पवन मणिपन्नग पतंग पितृ,
जेते ज्योतिवंत जग ज्योतिषिन गाये हैं।
असुर प्रसिद्ध सिद्ध तीरथ सहित सिंधु,
केशव चराचर जे वेदन बताये हैं।
अजर अमर अज अंगी औ अनंगी सच,
बरणि सुनावै ऐसे कौन गुण पाए है।
सीता के स्वयंवर को यप अवलोकिबे कों,
भूपन को रूप धरि विश्वरूप आये हैं।।80।।

विजय छंद

दिकपालन की, भुवपालन की, लोकपालन की किन मातु गयी च्वै।
ठाढ़ भये उठि आसन ते, कहि केशव शंभुशरासन को छ्वैं।
काहू चढ़ायो न काहू नवायो न, काहू उठायो न आँगुरहू द्वैं।
स्वारथ भो न भयो परमारथ, आए ह्वै वीर छले विनिता ह्वै।।81।।
(दोहा) सबही को समझयो सबन बल विक्रम परिणाम।
सभा मध्य ताही समय आये रावण बाण।।82।।
रावण बाण महाबली, जानत सब संसार।
जो दोऊ धनु करखिहै, ताको कहा विचार।।83।।

सवैया
बाणासुर-

केशव और ते और भयी, गति जानि न जाय कछू करतारी।
सूरन के मिलिबे कहँ आय, मिल्यो दसकंठ सदा अविचारी।
बाढ़ि गयो बकवाद वृथा, यह भूलि, न भाट सुनावहि गारी।
चाप चढ़ाय हौं कीरति कौं, यह राज बरै (कहीं कहीं ‘करै’ पाठ भी मिलता है) तेरी राजकुमारी!।।84।।
खंडित मान भयो सबको नृपमंडल हरि रह्यो जगती को।
व्याकुल बाहु, निराकुल बुद्धि, थक्यो बल विक्रम लंकपती को।
कोटि उपाय किये, कहि केशव, क्योंहुँ न छाड़त भूमि रती को।।
भूरि विभूति प्रभाव सुभावहिं ज्यों न चलैं चित योग-यती को।।85।।
(दोहा) मेरे गुरु को धनुष यह, सीता मेरी माय।
दुहूँ भाँति असमंजसै, बाण चले सुख पाय।।86।।

तोटक
रावण-

अब सीय लिये बिन हौं न टरौं। कहुँ जाहुँ न तौ लगि नेम धरौं।
जब लौं न सुनौं अपने जन को। अति आरत शब्द ‘हते तन को’।।87।।
काहु कहूँ सर आसुर मारîो जब। आरत शब्द अकास पुकारîो।
रावण के वह कान परîो जब। छोड़ि स्वयंबर जात भयो तब।।88।।
ऋषिराज सुनी यह बात जहीं। सुख पाइ चले मिथिलाहि तहीं।
बन राम सिला दरसी जबहीं। तिय सुंदर रूप भई तबहीं।।89।।

रामचंद्र का जनकपुर में आगमन

(दोहा) काहू को न भयो कहूँ, ऐसौ सगुन न होत।
पुर पैठत श्रीराम के, भयो मित्र उद्दोत।।90।।

सूर्योदय-वर्णन
चौपाई

राम- कछु राजत सूरज अरुन खरे। जनु लक्ष्मण के अनुराग भरे।
चितवत चित्त कुमुदिनी त्रसै। चोर चकोर चिता सो लसै।।91।।

षट्पद

लक्ष्मण-अरुण गात अति प्रात पùिनीप्राणनाथ भय।
मानहुँ केशवदास कोकनद कोकप्रेममय।
परिपूरण सिंदूरपूर कैधौं मंगलघट।
किधौं शक्र को छत्र मढ्यो मानिकमयूषपट।।
कै श्रोणितकलित कपाल यह किल कपालिका काल को।
यह ललित लाल कैघों लसत दिग्भामिनी के भाल को।।92।।

तोटक छंद

पसरे कर कुमुदिनि काल मनो।
किधौं पùिनी को सुख देने घनो।
जनु ऋक्ष सबै यहि त्रास भगे।
जिय जानि चकोर फँदान ठगे।।93।।

चंचरी छंद

रामचंद्र-व्योम में मुनि देखिए अति लाल श्री मुख साजहीं।
सिंधु में बड़वाग्नि की जनु ज्वालमाल बिराजहीं।
पùरागनि की किधौं दिवि धूरि पूरित सी भयी।
सूर वाजिन की खुरी अति तिक्षता तिनकी हयी।।94।।

(सोरठा) विश्वामित्र- चढ़îो गगनतरु धाइ, दिनकर-बानर अरुणामुख।
कीन्हों झुकि झहराइ, सबल तारका कुसुम बिन।।95।।
(दोहा) लक्ष्मण- जहीं बारुणी (पश्चिम दिशा, मदिरा) की करी, रंचक रुचि द्विजराज (चंद्रमा; ब्राह्मण)।
तहीं कियो भगवंत चिन, संपति शोभा साज।।96।।