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बाल दिवस / दिनेश कुमार शुक्ल

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चलती गाड़ी की खिड़की से
किसी अघाये यात्री ने
जैसे ही बाहर फेंकी जूठन
आधुनिकोत्तर भारत के
बच्चों की जैसे पूरी पीढ़ी
टूट पड़ी थी उस जूठन पर

लड़ती भिड़ती
गाली बकती
यह कितनी तेजाबी भाषा
जो मरोड़ती आँतों की
सुरंग से आती
और भीषण कुहराम मचाती -
बचपन के मुँह से
झरती वह
हिंसक उद्धत आहत भाषा,
वध्यस्थल से बचकर
जिन्दा रह पाने की
जीवट भाषा

वह भाषा भी किन्तु
हमारे बहरेपन की
चट्टानों से टकरा कर फिर
चाम चढ़ी पसली की
ढोलक में खो जाती

चीकट सना चीथड़ों लिपटा
निपट भयंकर
यह भी बचपन

प्राक्कथन यह
जीवन के दुःखान्त काव्य का
प्रथम पंक्ति ही जैसे
अपना अर्थ न पाकर
शब्दों का बेजान ढेर बन
रेत सरीखी बिखर गई हो।
बाल दिवस आता जाता है
यह किनका भारत महान
पीता पेप्सी पिज्जा खाता है ?
अजब खेल यह
शिशु आखेटक लकड़सुंघों का

शिशु आखेटक हाथों में
बचपन स्वदेश का
हमने तुमने सौंप दिया है,
भारी गफलत हुई
कि अब तो
लकड़सुंघो को पकड़ो भाई
लकड़सुंघों की करो धुनाई

बचपन चोरी करने वालो
बेच-बेच
अस्मिता देश की
तुमने जो कोठियाँ खड़ी कीं
उन्हीं कोठियों के बक्सों में
तुम्हें बन्द कर
जलसमाधि तुमको हम देंगे

भ्रूण हत्या के तुम अपराधी
तुमने सपनों को खा डाला
तुमने फूलों की क्यारी को
सत्ता के मद में अंधा बन

पूरी तरह कुचल ही डाला
तुम्हें किसी दुःस्वप्न की तरह
अपनी यादों से भी बाहर
करके ही
अब हम दम लेंगे।