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बाहर-भीतर / विजय गुप्त
Kavita Kosh से
बाहर की बहुत बोलती
लोरझोर,
लाटा-फाँदा करती
भाषा से अलग
बिल्कुल ख़ामोश
साफ, मगर तेज़
जलती-जलाती
भाषा
रहती है मेरे भीतर
एक दिन
आऊँगा
कविता के पास
इसी भाषा के साथ ।