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बाहर कब आओगे? / प्रताप सहगल

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मैंने तुम्हें आवाज़ दी
उस वक्त तुम दहलीज़ पर थे
तुमने आवाज़ सुनी
और कमरे के अन्दर चले गए
हो गए उनकी योजनाओं में शरीक
क्या था उन योजनाओं का प्रारूप
नहीं मालूम मुझे
न देश के दूसरे लोगों को
हां, जो पत्रकार तुमने तय किए थे
वे तारीफ कर रहे थे।
तुम्हारा नाम भी शामिल था और लोगों के साथ
मैंने तब फिर तुम्हें आवाज़ दी
दावत दी तुम्हें
अपनी जमात में शामिल होने की।

तुम कमरे से बाहर आए
और दहलीज़ पर खड़े होकर
झण्डा हिलाते रहे
उस झण्डे पर सुनहरा भविष्य अंकित था
और तुमने मुझे पास बुलाकर
झण्डा मेरे हाथ में थमा दिया
मैंने दूसरे के
दूसरे ने तीसरे के
और झण्डा शान से फहराने लगा
तुम तब भी खड़े थे दहलीज़ पर ही
और मन्द-मन्द मुस्करा रहे थे।

झण्डा जैसे-जैसे फहराने लगा
उसकी आवाज़ की शक्ल बदलने लगी
शक्ल धीरे-धीरे आतंकित करने लगी
मैंने फिर तुम्हें बुलाया
तुम कमरे में नहीं थे
पर कमरे से बाहर भी कहीं नहीं
तुम ठीक कमरे और बाहर के बीच
दहलीज़ पर मौजूद थे।

मैंने कहा-बाहर आओ
साथ लाओ अपनी योजनाएं
तुम ज़रा-सा मुस्कराए भर
इस बार भी
पहले से तय मुद्रा में तुम दहलीज पर खड़े रहे
तब तुम्हारी नज़रें कमरे की ओर थीं

तुमने योजनाओं का मायालोक
मेरे सामने फैला दिया
मैं चौंक गया
मैंने लोगों के हाथों में झण्डे देखे
उन पर अंकित था योजनाओं का मायालोक
झण्डों का जंगल फैल गया
पूरे देश में
असली झण्डा ढूंढ़ते हुए मैंने देखीं
झण्डों की प्रतिलिपियां
इसी बीच तो वह सब घटा
जिसकी ज़रा भी खबर
तुमने किसी को नहीं होने दी
और योजनाएं
षड्यन्त्र में बदल गयीं।
षड्यन्त्र हज़ारों ऑक्टोपस बनकर
फैलने लगा
षड्यंत्र ने मेरे कपड़े उतार लिये
बच्चों को पुलों के नीचे दबा दिया
मज़दूरों की आंतों को चटखा दिया
भर दिया कसाईघर-सी जेलों को।

तब मैंने तुम्हें फिर आवाज़ दी
हालांकि तुम बिलकुल मेरे करीब थे
मैं तुम्हारी हत्या तक कर सकता था
(सवाल यह भी है कि
हत्या मैंने क्यों नहीं की)
पर तुम ज़रा भी नहीं घबराए।

मैंने कहा-बाहर आओ
कमरे के अन्दर से
सिर्फ एक गन्ध निकली
तुम गन्ध सूंघते रहे
ऑक्टोपस की हरकतों को
तुमने नज़र-अन्दाज़ कर दिया।
तब से
ठीक तभी से
बाहर जुलूस है
शोर है
पसीना है
और तुम गन्ध में खड़े नहा रहे हो।

मैं तुम्हें लगातार आवाज़ दे रहा हूं।
और तुम अभी भी
दहलीज़ पर हमे खड़े हो
हरियाली के बीचों-बीच
अहंकारी ठूंठ-से।
नज़रें तुम्हारी बाहर हैं
कान अन्दर
कब तक सुन लोगे मेरी आवाज़
कब हिलेंगे तुम्हारे होंठ
इतना तो बता दो
बाहर कब आओगे?

1982