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बिंदी तेरी चिपकी हुई / विजय वाते
Kavita Kosh से
सर से लेकर पाँव तक इक गुदगुदी जैसी हुई।
आईने पर जो दिखी बिंदी तेरी चिपकी हुई।
एक पर में जी लिए पूरे बरस पच्चीस हम,
आज बिटिया जब दिखी साड़ी तेरी पहनी हुई।
अब छुअन में वो तपन वो आग बैचेनी नहीं,
तू न घर हो, तो लगे, घर वापसी यों ही हुई।
घर में मानी और क्या बस तेरी दो आँखे तो हैं,
द्वार पर अटकी हुई बस राह को तकती हुई।